पेड़ पे लटकी थी
रस्सी के एक टुकड़े के सहारे
वो एक बेजान देह
हंसती थी खिलखिलाती थी
चंद घंटो पहले तक जो
अब है वो एक बेजान देह
चढ़ गयी कुछ वीभत्स विचारो
की बलि वेदी पर और बन गयी
इंसान से एक बेजान देह
कुछ सपने थे कुछ अरमान भी
थे
उन अरमानो के साथ लटकी है
वो एक बेजान देह
अक्सर कुचला जाता था उसका
अस्तित्व
जो कभी था ही नही, वो पहले
थी
एक जिन्दा देह अब है एक
बेजान देह
नारी जननी जैसे शब्द तो
जैसे
एक झुनझुना है जिससे उसको
बहलाया है
हकीकत में है वो एक देह
कभी जिन्दा तो कभी एक बेजान
देह
चीखी थी वो चिल्लाई भी थी
पर इस कलियुग में कोई केशव
भी नही
जो बचा सके उसे
बनने से एक बेजान देह
और अब तो एक “विशाल” भीड़ है
आ गये है सभी अपनी रोटियाँ
सेकने को
आखिर छोड़कर एक नारी का आवरण
आज वो बन गयी है एक बेजान
देह
विशाल सर्राफ
“धमोरा”
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