मेरे एक परम मित्र है श्रीमान चिंतामणी कुमार "शोषित" एक आम आदमी मेरी और आपकी तरह उनकी जिन्दगी के कुछ किस्से मेरी जुबानी .............
यात्रियों से लदी-थदी उस सरकारी बस में
करके प्रभु का विचार
‘चिंतामणि’ जी हो लिए सवार |
बस तो बस, बस थी
देश की भांति हालत उसकी भी पस्त थी |
शीशे अरमानो की तरह टूटे हुए थे
दरवाजे वामपंथियों जैसे रूठे हुए थे|
इतने में बस भी चल चुकी थी
सीटो को देख कुर्सी चाहने वालो की
हसरते भी मचल चुकी थी |
बचते-बचाते परिचालक महोदय चिंतामणि के पास आए
चिंतामणि ने दस रुपये उनकी और बढाए |
परिचालक ने चलते-चलते दस की नोट जेब में डाली,
तभी चिंतामणि ने टिकट की मांग कर डाली |
टिकट मांगने पर परिचालक ने उन्हें यूँ निहारा ,
जैसे उन्होंने उसके सर पे पत्थर दे मारा |
वो बोला टिकट को क्या तू कुतरेगा,
अभी दो मिनट बाद आम बस्ती में तु उतरेगा |
देख कर उसका ये रवैया बेबाक ,
चिंतामणि जी रह गये अवाक् |
तब चिंतामणि जी बुरी तरह बिगड़ गये ,
चप्पलों समेत परिचालक के सर पे चढ़ गये |
परिचालक भी सरकारी साला था ,
ऐसे चिंतामनियो से उसका रोज़ पड़ता पाला था |
जहाँ जरूरत थी वहा पूरा हिस्सा पहुँचाता था ,
तभी तो उस माल को अपना मानकर खाता था |
देख परिचालक के ‘सरकारी’ तेवर
सहयात्रियों ने चिंतामणि को पंगा न लेने की नसीहत दे डाली |
और इस तरह एक और आम आदमी ने
मजबूरी में ‘रिश्वत’ दे डाली |
पर चिंतामणि जी पूछ रहे “विशाल” से एक ही बात ,
मैं एक आम आदमी, क्या यही मेरी औकात ?
विशाल
सर्राफ धमोरा
wahhhh ..धरातल से जुड़ी आम आदमी की रचना ... बहुत खूब विशाल ..बधाई एवं शुभकामनाये :)
ReplyDeleteकमेंट से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दो तब पाठको को सुविधा होगी कमेन्ट करने में :)
ReplyDeleteहटा दिया है दी :) ........ बहूत बहूत स्वागत है आपका ब्लॉग पर
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