मुँह अँधेरे जब सब सोये
रहते है नींद के आगोश में
तब चुपके से उठती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
जब उतरती है अलसाई
सी धुप
तब जीने को मचलती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
डाल कर दाना पानी पेट में
जब हो जाते है सब तैयार
तब जीतने को भागती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
थक कर दिन भर काम के
बोझ से आखिर शाम को
धीरे से घर लौटती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
थोड़ी ख़ुशी थोडा गम
थोड़ी सी हंसी तो ढेर सा
अपनापन
अपनों के साथ बांटती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
पर अगले दिन की तैयारी करने
से पहले इतना सोचती है
जिन्दगी
की “विशाल” क्यों चलती है
जिन्दगी
घड़ी की टिक टिक के साथ |
विशाल सर्राफ “धमोरा”
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