Sunday 11 January 2015

त्रिवेणी .....एक जादू ....एक नशा



त्रिवेणी की बात चलती है तो चंद लोगो के लिए दिल से धन्यवाद निकल जाता है जिनमे पहले तो बेशक गुलज़ार साहब है जिन्होंने ये तोहफा हम सबको दिया दुसरे है अपने जुकरबर्ग साहब वो ही फेसबुक वाले (अगर ये नहीं होते तो ..........) फिर तीसरे मगर ख़ास है हमारे फेसबुकिया मित्र सिद्धार्थ भाई जिन्होंने त्रिवेणी से हमारा परिचय करवाया | अब जबसे त्रिवेणी पढ़ी हमने इसका जादू सर पे चढ़ गया और हम चाहते भी नहीं की ये वापस उतरे | :P  जब त्रिवेणी पढ़ते है तो पता चलता है की इसमें  अहसास है खालिस अहसास | 

फिर त्रिवेणी को लेकर हमने गूगल गुरु का दिमाग खाया और तभी भाई राहुल वर्मा की ‘बेअदब साँसे’ की जानकारी मिली फिर क्या था ऑनलाइन मंगवा ली (पूरे 50 रूपये का डिस्काउंट कूपन काम लेकर :D ) और पता चला
पहली आई थी ,बिना मेरी मर्जी के
आखिरी भी , बिन बताये आ जाएगी
.
बड़ी बेअदब होती है ये साँसे ..........(राहुल वर्मा - बेअदब साँसे से साभार)

जवानी की दहलीज पे खड़े होकर जब बचपन वाली ट्रेन को निकलते देखा तो आवाज आयी अरे यार  ये तो निकल गयी पता ही नहीं चला ,फिर कुछ नाकाम सी कोशिश उस ट्रेन को वापस पकड़ने की और अंत में थक हारकर अपना पिटारा सम्हाल लिया और जब उस पिटारे में रखी डायरी को खोला तो .....
खोला जब मैंने पुरानी डायरी के पन्नों को
कुछ बच्चे उसमे से झगड़ते हुए गिर पड़े
.
ना जाने मेरे कंचे गिनती में कब पूरे होगे  ........  

खैर जिन्दगी तो जिन्दगी है चलती जाती है  मगर इस भाग दौड़ के बीच जब चारो और से दुनियादारी की दीवारे घेर लेती है और दम घुटने लगता है तब ....
ये ऊँची ऊँची दीवारे दम घोंट ही देती
अच्छा हुआ एक झरोखा रख लिया था
.
आज भी मुझे मेरा बचपन खेलता हुआ नजर आता है ...........
यूँ तो बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया.....फिर भी कुछ दौलत अलग किस्म की भी होती है जिन्हें कही से खरीदा नहीं जा सकता वो मिलती है तो मुफ्त में ......
अक्सर चला जाता हूँ पुराने स्कूल के मैदान में
वापस आते वक़्त थोडा और अमीर हो जाता हूँ
.
हसीन लम्हों के बेहिसाब मोती छिपे है उस मिटटी में ......

वक्त तो सभी को बदल देता है और हमारे साथ साथ हमारा गाँव भी बदल गया ....बहुत कोशिश की फिर से उसी गाँव को ढूँढने की पर .....
कभी ढूँढा मैंने पीपल के ठूंठ के पीछे
और कभी उस सूखे कुए की मुंडेर पर
.
विकास की भीड़ में मेरा वो गाँव लापता है
बचपन गया गाँव छुटा और इसी दौरान रिश्तों का खेल भी देखा  .......और कहीं से आवाज आयी
ताश के पत्तो का महल क्या बना लिया
मैं खुद को बादशाह समझने लगा था
.
हवा का झोंका, अरमानो की लाशें , और बेवा तन्हाई.......
और आज भी जिन्दगी के किसी मोड़ पर जब पीछे पलटकर देखते है तो पता चलता है .......
ये जो कामयाबी का पेड़ लहराता है
इस पर कुछ बुरी रूहों का बसेरा है
.
मासूम अरमानो का खून बिखरा है इसके इर्द गिर्द.....
त्रिवेणी कुछ ऐसी ही है (मुझे तो ऐसी ही लगी) ........ बाकि तो जी दुनियाँ बहुत बड़ी है सुना है 200 से ज्यादा देशो की सरहदे है .............
मेज पर रखा एक बड़ा सा गोला
कही हरा कही पीला बाकी का नीला
.
कितना अच्छा होता अगर टेढ़ी-मेढ़ी काली लकीरें नहीं होती .......... 

फिर से मिलते है जल्द ही :) :) :)   



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