Sunday, 28 September 2014
Sunday, 21 September 2014
कश्मीर
बिलावल भुट्टो कहता है मैं कश्मीर वापस ले लूँगा ............ क्या समझता है कश्मीर कोई खिलौना है जो छीन लेगा ........ और हम बैठे रहेगे हाथ पर हाथ धरे ........ भूल है उसकी .......
कश्मीर देखने से पहले तू अपनी औकात देख
कश्मीर के लिए धडकते दिलो के जज्बात देख
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सीमा पे चमकती दोधारी भारतीय तलवार देख
भारत की तरफ उठे, कटे सिरों का हिसाब देख
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मत समझ लाचार तू , कश्मीर को परेशान देख
कर ले दो दो हाथ, तू हमारे लहू का उबाल देख
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जा मौका दिया, अपनी पसंद का कब्रिस्तान देख
सीमा पर आ , आखिरी बार अपना परिवार देख
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-विशाल सर्राफ धमोरा
Saturday, 20 September 2014
बचपन
बचपन ........ जो जब पास है तब पता नहीं चलता और बीतने के बाद मिल नहीं पाता........... भले बचपन बीत जाता है पर सभी के अन्दर जिन्दा रहता है एक बच्चा .......... जो कभी सामने आ जाता है और कभी छुपा रहता है ....... डरा सहमा सा दुनिया की भीड़ से डरकर ............. उसी बचपन की कुछ यादें
वो बचपन में दिनभर यूँ ही उधम मचाना
कभी चिड़ियाँ कभी तितली के पीछे दौड़ जाना
बीच राह में अक्सर यूँ ही मचल जाना
चलते चलते गिरना और गिरकर संभल जाना
देख टॉफी अचानक मोम सा पिंघल जाना
वो सर्दी गर्मी बरसात सभी का मखौल उड़ाना
ढर्रेदार दुनियां में थोड़ी बेतरतीबी फैलाना
कभी बात बेबात बगावत पर उतर आना
सुनकर परीकथाए सपनों में खो जाना
भूलके जहाँ को माँ की गोद में सो जाना
कभी राजा, मंत्री कभी चोर बन जाना
दुनिया में अपनी अलग सरकार चलाना
“विशाल” टूटे खिलोनो को बार बार चिपकाना
बचपन का मोल सब गुजर जाने के बाद जाना
-विशाल सर्राफ धमोरा
Sunday, 14 September 2014
हिंदी दिवस की शुभकामनाये
हिंदी ........जिसे जानते है हम सब बचपन से .... जो कभी अ से अनार बन
कर ललचाती थी ..... तो कभी इमली की तरह जुबां खट्टी कर जाती थी ...कभी झूलती थी
नाक पर ऐनक बनकर ........... तो कभी ओखली और औरत में घुमा जाती थी ..... कभी उडती
थी मुक्त आकाश में कबूतर की तरह ...... तो कभी खरगोश बनकर दौड़ लगाती थी .....कभी
करती थी टिक टिक घडी की तरह ....... तो कभी बनकर बापू का चरखा आजादी की जोत जला
जाती थी ....... कभी बचाती थी तपिश से छाता बनकर .....तो कभी झंडा बनकर लहराती थी
...........
.........पर अब जैसे अनार सड़ गया है ....... इमली के पेड़ दीखते ही
नहीं .... ऐनक बीते जमाने की बाते है कांटेक्ट लेंस का जमाना है ....... ओखली किसी
काम की नहीं तो औरत लेडी बन गयी ............ आकाश जहरीला हो चूका है ........ खरगोश दौड़ते है पिंजरों में ........
घडी रुकी हुयी है ....... बापू बस मजबूरी का नाम बनकर रह गये है ........ इंद्र तो
वैसे ही रुष्ट रहते है ....... झंडे तो देश में करोड़ो लहरा रहे है ..... कोई मजहब
के नाम पे ..... कोई स्थान के नाम पे .... कोई जाती के नाम पे .... ..
और इन सबके बीच डरी सहमी सी हिंदी भटकती है गली कुचो में ....... खेत
खलिहानों में ......कभी लेती है छोटी सी सांस गलियों में गूंजते लोकगीतों में
........ कभी मुस्कुराती है बच्चे की तोतली जुबान में ....... कभी बच के निकलती है
पग पग पर फैले जालों से ...... तो कभी करती है सामना अपनों (क्षेत्रीय भाषा ) के
विरोध का जो सोचते है की हिंदी घोंट रही है उनका दम ........ कभी करती है कोशिश
फिर से उड़ने की कुछ नादान सी कविताओ में .......तो कभी उलझ जाती है साहित्यकारों
के बड़े बड़े उसूलो में......... कभी भागी फिरती है अपनी ही परछाई से ...... तो कभी
सिकोड़ती जाती है खुद को सिमटते कम्बल के साथ ...... कभी सहम जाती है निर्भया सी जब
फाडे जाते है उसके कपडे सरेआम ......... तो कभी तैरती है कुछ आँखों में हसीं सपने
बनकर ... तो कभी झुंझलाती है भूखे पेट ............. पर हर पल हर लम्हा एक गुहार
लगाती जाती है अपने बच्चो से की बचा ले उसका अस्तित्व ......... बचा ले उसकी आन
बान शान .......... फिर से लौटा दे उसे उसका घर जो गिरवी रखा है विदेशियों के यहाँ
...... ना पहनाये उसे ऐसे आभूषण जो उसका दम घोंट रहे है ............ बस उसे दे दे
उसकी पहचान ..... अपनों के बीच ..............
तो आइये लेते है हम सब एक शपथ की देंगे उसे उसका सम्मान ..... हक़ से
कभी भागती थी मेरा बचपन बनकर
आज रगों में दौड़ती जवानी है हिंदी
कभी राजा कभी विक्रम कभी वेताल
वहीँ परियों वाली कहानी है
हिंदी
चारो और फैली इस तपिश में
एक लुभाती सी छाँव सुहानी है
हिंदी
Saturday, 6 September 2014
चिंतामणि जी राशन की दुकान पर
आज घूमते घूमते चिंतामणी कुमार 'शोषित' फिर से मेरे घर आ गये | .....किसी गिरी हुयी सरकार के भावुक मंत्री की तरह उनके चेहरे पर बड़ा दयनीय भाव था ....आँखे तो बस तैयार थी बरसने को .... फिर मम्मी को दो चाय के लिए बोलकर और थोड़ी से हिम्मत बटोर कर .....मैंने पूछा चिंतामणी जी आज सुबह सुबह ...... सब खैरियत तो है ना ......और बस सब्र का बाँध छलक गया ..... जो भी था दिल में वो शब्दों में बह गया ...... तो चिंतामणी जी की कहानी ..... मेरी जुबानी
होकर श्रीमती जी की
रोज रोज
की खीच खीच से
परेशान
लाने को राशन
चिंतामणि जी
पहुच गये राशन की
दूकान |
दूकान जाकर पता लगा,
आटे दाल के भाव
जा रहे सातवे आसमान,
तब बचे पैसो से चाट
खाने के
उनके टूट गये अरमान
|
उन्होंने जब देखा
अपने बजट का हाल
की या तो आटा आएगा
या फिर दाल |
और वो सोचने लगे की
अकेली दाल क्या पेट
भरेगी
और आटा लिया तो
दाल की कमी अखरेगी |
तेल तो इस महंगाई
में
बदन से ही निकल आएगा
पानी जब पीने को
नहीं तो
नहाने का साबुन क्या
काम आएगा
भगवान् को भी
प्रसाद
कहा से चढाऊंगा
कुछ दिन हाथ जोड़कर
और खीसे निपोरकर ही
काम चलाऊंगा |
और ऐसे दौड़ा कर अपनी
कल्पना के घोड़े सारे
चिंतामणी जी बिन कुछ
लिए
घर वापस पधारे |
पर उनकी आँखों में “विशाल”
एक ही सवाल |
कब तक महंगाई नोचेगी
यूँ ही आम आदमी की खाल |
विशाल सर्राफ धमोरा
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